पटना। चार जून को जब लोकसभा चुनाव के परिणाम निकलेंगे तो उसमें अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम की भी झलक मिलेगी। लोकसभा चुनाव के प्रचार के समय ही लोगों को अगले चुनाव के लिए सतर्क किया जा रहा है। राजग (NDA) के डबल इंजन सरकार के प्रचार में विधानसभा चुनाव में गठबंधन के पक्ष में वोट करने की अपील अंतरनिहित है। महागबंधन के प्रचार में भी अगली बार, तेजस्वी सरकार (Tejashwi Yadav) की मांग साफ सुनाई देती है। महागठबंधन युवाओं को आश्वासन दे रहा है कि केंद्र और राज्य में महागठबंधन यानी आईएनडीआईए की सरकार बनती है तो उनके लिए सरकारी नौकरियों का इतना बड़ा दरवाजा खुलेगा, जिसमें सभी बेरोजगार प्रवेश कर जाएंगे।

सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर लड़ा जाता है राज्य का चुनाव

राज्य का चुनाव हमेशा सामाजिक समीकरण यानी सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर लड़ा जाता है। विभिन्न जाति समूहों को किसी गठबंधन के पक्ष में वोट करने के लिए सहमत कर लेना ही यहां सोशल इंजीनियरिंग है। कभी कांग्रेस की जीत सवर्ण, मुसलमान और वंचितों (अनुसूचित जातियों)की एकमुश्त गोलबंदी के आधार पर बनती थी। भागलपुर का कुख्यात सांप्रदायिक दंगा और मंडल के प्रादुर्भाव के बाद तत्कालीन जनता दल ने मुसलमानों को उस समीकरण से बाहर कर अपने साथ जोड़ लिया। कांग्रेस के पास वंचित और सवर्ण रह गए। मंडल आंदोलन में तेजी आई और उसके मुकाबले मंदिर आन्दोलन शुरू हुआ तो सवर्ण भाजपा से जुड़ गए। वंचितों के वोट कई हिस्से में विभाजित हुए। लेकिन, 1995 के विधानसभा चुनाव के साथ एक बड़ी सामाजिक गोलबंदी सामने आई, जिसने उस समय के जनता दल और उसके नेता लालू प्रसाद को अपराजेय बना दिया। यही वह समय था, जब मंडल और मंदिर से इतर लालू प्रसाद (Lalu Yadav) के पक्ष और विपक्ष में गोलबंदी होने लगी।

2005 में लालू प्रसाद बिहार की सत्ता से बाहर हो गए

इसका परिणाम ठीक 10 साल बाद आया, जब 2005 में लालू प्रसाद बिहार की सत्ता से बाहर हो गए। उनके पास सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर माय समीकरण बचा रह गया था। बिहार में इस समय लोकसभा चुनाव की रणनीति और प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें तो साफ लगेगा कि यह वर्तमान से अधिक अतीत पर आश्रित है। लालू प्रसाद महागठबंधन को 1995 के जनाधार के स्तर पर लाना चाह रहे हैं। उधर राजग की रणनीति का मूल पाठ यह है कि कैसे लालू प्रसाद और उनके गठजोड़ को 2005 की तरह किनारे कर दिया जाए।

यही कारण है कि राजग के नेता केंद्र में दस साल और राज्य में 19 साल की सरकार की उपलब्धियों के साथ लालू प्रसाद के शासन का डर दिखा रहे हैं। क्योंकि विकास की भौतिक उपलब्धियों के बाद भी लालू प्रसाद का डर विरोधी वोटों की गोलबंदी का अबतक सबसे बड़ा सूत्र रहा है। यही वह डर है, जिसने अगड़े-पिछड़े के भेद को मिटाकर बड़ी आबादी को राजग के पक्ष में गोलबंद कर दिया था। राजग की रणनीति से लालू प्रसाद परिचित हैं। लोकसभा चुनाव के टिकट बंटवारे में महागठबंधन ने चतुराई का परिचय दिया। 2005 से लेकर उसके बाद तक कई जातियां लालू प्रसाद से छिटक कर राजग के पाले में चली गई।

किस समाज को नहीं इस बार नहीं मिली टिकट

इनमें पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के अलावा सवर्ण और वंचित हैं। महागठबंधन ने लोकसभा की 40 में से 20 टिकट उन जातियों के बीच बांट दिए, जिन्हें 2005 और उसके बाद राजग के घटक दलों से जोड़ कर देखा जाता था। कुशवाहा, वैश्य और भूमिहार के अलावा वंचितों में पासवान को राजग के कट्टर समर्थक के रूप में देखा जाता था। महागठबंधन के 20 उम्मीदवार इन्हीं जातियों के हैं। हां, 36 प्रतिशत की आबादी वाली अति पिछड़ी जातियों को उनकी संख्या के अनुपात में उम्मीदवारी नही दी गई। इनके दो उम्मीदवार बनाए गए।

इन्हें अब भी राजग के खाते में माना जाता है। लोकसभा चुनाव परिणाम से यह भी पता चलेगा कि लालू प्रसाद अपनी सोशल इंजीनियरिंग में किस हद तक सफल हुए। अगर उन्हें सफलता मिल जाती है तो विधानसभा चुनाव में भी इसी पैटर्न पर टिकट का वितरण कर वे 20 साल बाद 2025 में फिर से सत्ता में आने का सपना देेख सकते हैं। तब वे 1995 के अपने आधार को छूने के बारे में सोच सकते हैं। यही कारण है कि राजग पुराने शासन की याद दिला रहा है। इधर राजद (RJD) खुल कर मंडल के दौर की वापसी का प्रयास कर रहा है।